रावण के पुतले जलते हैं, पर समाज की बुराइयां क्यों नहीं जलतीं?

हर साल रावण जलाते हैं, फिर भी समाज में क्यों बढ़ रही है बुराई?
हर साल दशहरे पर रावण के विशाल पुतले धू-धू कर जलते हैं। आतिशबाजी होती है, भीड़ तालियां बजाती है और सब घर लौट जाते हैं इस संतोष के साथ कि बुराई पर अच्छाई की जीत हो गई। लेकिन क्या सचमुच रावण मर जाता है? क्या उसके जलने के साथ ही उसके भीतर की बुराइयां भी खत्म हो जाती हैं? या फिर यह महज एक खोखला आयोजन है जिसमें हम परंपरा के नाम पर दिखावा तो करते हैं, लेकिन असल सवालों से मुंह मोड़ लेते हैं?
रावण को बुराई का प्रतीक माना जाता है। उसमें अहंकार था, काम-वासना थी, दूसरों को अपमानित करने की प्रवृत्ति थी। लेकिन आज के समाज में झांककर देखें तो ये सारी बुराइयां कहीं न कहीं हम सबके भीतर भी तो हैं। क्या हमारे नेताओं में अहंकार नहीं है? क्या हमारे समाज में महिलाओं के प्रति असम्मान नहीं है? क्या हम शक्तिशाली होकर कमजोरों को कुचलते नहीं हैं? रावण का पुतला जलाने से पहले हमें खुद से यह पूछना चाहिए कि क्या हमने अपने भीतर के रावण को मारा है या नहीं।
दशहरा मनाने का असली उद्देश्य क्या है? क्या सिर्फ एक त्योहार मना लेना, मिठाइयां बांट देना और रामलीला देख लेना काफी है? या फिर इस पर्व का गहरा संदेश है जिसे हम जानबूझकर नजरअंदाज कर रहे हैं? राम ने रावण को इसलिए नहीं मारा था कि वह महान योद्धा बन जाएं। उन्होंने धर्म की स्थापना के लिए, न्याय के लिए, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए यह युद्ध लड़ा था। लेकिन आज हम उसी राम की पूजा करते हैं और अन्याय देखकर चुप रह जाते हैं। यह कैसी विडंबना है?
रावण जलाने के आयोजन में करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। बड़े-बड़े पुतले बनाए जाते हैं, आतिशबाजी की जाती है, मंच सजाए जाते हैं। लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा कि यह पैसा गरीबों की मदद में, शिक्षा में, स्वास्थ्य सुविधाओं में खर्च किया जाए तो कितना बेहतर होगा? जिस समाज में लाखों बच्चे भूखे सोते हों, वहां इतना खर्चीला आयोजन करना क्या उचित है? रावण ने भी तो अपने अहंकार में संसाधनों का दुरुपयोग किया था। क्या हम भी वही नहीं कर रहे?
पर्यावरण के नजरिए से भी यह सवाल उठता है। आतिशबाजी से प्रदूषण बढ़ता है, पुतले जलाने से धुआं और जहरीली गैसें निकलती हैं। हम एक तरफ पर्यावरण बचाने की बात करते हैं और दूसरी तरफ त्योहारों के नाम पर उसे नुकसान पहुंचाते हैं। यह दोहरापन रावण से कम खतरनाक नहीं है। रावण ने प्रकृति का अनादर किया था, क्या हम भी वही नहीं कर रहे?
क्या अगले दिन से हम ज्यादा ईमानदार बन जाते हैं? क्या हम भ्रष्टाचार छोड़ देते हैं? क्या महिलाओं के प्रति हमारा नजरिया बदल जाता है? जवाब है - नहीं। हम वही के वही रहते हैं। रावण का पुतला जलता है, लेकिन असली रावण हमारे भीतर जिंदा रहता है। फिर इस आयोजन का क्या मतलब?
दरअसल, हमने त्योहारों को महज रस्म-अदायगी बना दिया है। हम परंपरा के नाम पर वही करते जाते हैं जो सदियों से होता आया है, लेकिन उसके पीछे के संदेश को भूल जाते हैं। रावण जलाना तभी सार्थक है जब हम अपने भीतर की बुराइयों से लड़ें। अहंकार, लालच, ईर्ष्या, द्वेष - ये सब हमारे अंदर का रावण हैं। इन्हें जलाए बिना बाहरी पुतला जलाने से क्या फायदा?
यह सवाल सिर्फ दशहरे तक सीमित नहीं है। यह हमारे समाज की उस सोच पर सवाल है जो दिखावे में विश्वास करती है, लेकिन असली बदलाव से कतराती है। हम मंदिर बनाते हैं लेकिन धर्म नहीं अपनाते। हम पूजा करते हैं लेकिन पाप नहीं छोड़ते। हम त्योहार मनाते हैं लेकिन उनके मूल्यों को नहीं अपनाते। यह पाखंड है, और इस पाखंड के खिलाफ आवाज उठाने का समय आ गया है।
रावण एक महान विद्वान था, शिव का परम भक्त था, लेकिन उसका अहंकार उसके पतन का कारण बना। आज के युग में भी ऐसे अनगिनत लोग हैं जिनके पास ज्ञान है, शक्ति है, लेकिन वे अपने अहंकार में अंधे हैं। नेता, अफसर, व्यापारी - हर वर्ग में रावण मौजूद है। क्या हम उन्हें भी जलाने का साहस रखते हैं? या फिर हम सिर्फ कागज के पुतले जलाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं?
दशहरे का असली संदेश है आत्म-चिंतन। यह खुद से सवाल पूछने का दिन है। यह तय करने का दिन है कि हम किस रास्ते पर चलना चाहते हैं - राम के या रावण के। लेकिन यह फैसला सिर्फ एक दिन का नहीं होना चाहिए। यह जीवन भर की प्रतिबद्धता होनी चाहिए। रावण को हर दिन, हर पल, अपने भीतर से जलाना होगा। तभी इस त्योहार की सार्थकता है, वरना यह सब एक खोखला प्रदर्शन है।
अगर हम सचमुच रावण को मारना चाहते हैं तो समाज में फैली बुराइयों के खिलाफ खड़े होना होगा। भ्रष्टाचार देखें तो आवाज उठाएं, अन्याय देखें तो विरोध करें, महिलाओं पर अत्याचार हो तो चुप न रहें। यही असली रावण-दहन है। बाकी सब तो महज तमाशा है जिसमें हम हर साल शामिल होते हैं और अगले साल फिर से वही दोहराते हैं। बदलाव की बात करते हैं लेकिन खुद नहीं बदलते।
तो इस बार दशहरे पर रावण जलाने से पहले खुद से पूछिए - क्या आपने अपने भीतर के रावण को मारा है? अगर नहीं, तो यह आयोजन निरर्थक है। और अगर हां, तो आप सच्चे अर्थों में राम के अनुयायी हैं। फैसला आपका है।