तूरा गांव में सात वर्षों से कृष्ण ठहराव की परंपरा निभाकर सामाजिक समरसता को मजबूत करने में जुटे रतनसिंह

तूरा गांव में सात वर्षों से कृष्ण ठहराव की परंपरा निभाकर सामाजिक समरसता को मजबूत करने में जुटे रतनसिंह
  • तूरा गांव में कृष्ण जन्माष्टमी उत्सव भक्ति, सांस्कृतिक एकता और सामाजिक समरसता की बनी मिसाल

जालोर. जिले के सायला उपखंड मुख्यालय के निकटवर्ती तूरा गांव में कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर पिछले सात साल से सामाजिक समरसता अनूठा उदाहरण पेश किया जा रहा है। यह परंपरा गांव के ही समाजसेवी उद्योगपति रतनसिंह सुपुत्र मोतीसिंह राठौड़ की ओर से निभाई जा रही है।

राठौड़ अपने गांव में कृष्ण जन्माष्टमी उत्सव भक्ति, सांस्कृतिक एकता और सामाजिक भाईचारे को मजबूती प्रदान करने को लेकर यह परंपरा निभा रहे हैं। दरअसल कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर गांव में हर समाज की ओर से अलग-अलग स्थानों पर उत्सव मनाया जाता है, फिर दूसरे दिन नवमी के दिन कृष्णजी की मूर्तियां विसर्जित करने का कार्यक्रम होता है, लेकिन रतनसिंह राठौड़ की ओर से नवमी के दिन सभी कृष्ण मूर्तियों को अपने एक स्थान पर एकत्रित करवाकर पूजन व महाप्रसादी की जाती है, इस उत्सव को सभी समाजों के लोग एक स्थान पर सामूहिक रूप से मनाते है, स्थानीय भाषा में इस कार्यक्रम को 'कानूड़ा वाळणा' (कृष्ण ठहराव) के रूप में माना जाता है।

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फिर दूसरे दिन सभी मूर्तियों को एक साथ विसर्जित किया जाता है, यह कार्यक्रम रतनसिंह की ओर से सात साल से आयोजित किया जा रहा है। इसी के तहत रविवार को अपने निवास स्थान तूरा पर भव्य कार्यक्रम आयोजित किया गया।जिसमें पूरे गांव के समाजों के विभिन्न कृष्ण मूर्तियों को एक साथ रखकर सभी माताओं बहिनों व नागरिकों ने पूजा अर्चना कर कृष्ण भगवान को भोग लगाया गया। वहीं सभी ग्रामवासियों के लिए प्रसादी का आयोजन किया गया। जिसमें बड़ी संख्या में माताओं बहनों व ग्रामवासियों ने भाग लिया।

भगवान कृष्ण के जन्मोत्सव का उत्सव भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण उत्सव है - रतनसिंह राठौड़

समाजसेवी व उद्योगपति रतनसिंह राठौड़ तूरा ने बताया कि भगवान कृष्ण के जन्मोत्सव का उत्सव, जन्माष्टमी, भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण उत्सव है, जो सांस्कृतिक विरासत को सामाजिक समरसता के साथ जोड़ता है। इस उत्सव में भक्ति गायन, नृत्य और कृष्ण के जीवन के पुनरावर्तन जैसे विभिन्न अनुष्ठान शामिल होते हैं, जो हिंदू पौराणिक कथाओं और परंपराओं को संरक्षित करने में मदद करते हैं। ये प्रथाएँ सांस्कृतिक मूल्यों को सुदृढ़ करती हैं और पीढ़ियों तक उनके संचरण को सुनिश्चित करती हैं, जिससे भारत की समृद्ध आध्यात्मिक परंपराओं का प्रदर्शन होता है।

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अपने सांस्कृतिक प्रभाव के अलावा, जन्माष्टमी विविध पृष्ठभूमि के लोगों को एकजुट करके सामाजिक समरसता को बढ़ावा देती है। जुलूस और सामूहिक गतिविधियों जैसे सार्वजनिक आयोजन सामाजिक और आर्थिक बाधाओं को दूर करते हैं और एकता की भावना को बढ़ावा देते हैं। यह त्योहार आर्थिक गतिविधियों को भी बढ़ावा देता है, जिससे स्थानीय व्यवसायों और कारीगरों को लाभ होता है, और कलात्मक अभिव्यक्ति और सामुदायिक जुड़ाव के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है। यह पारिवारिक पुनर्मिलन के अवसर प्रदान करता है और बंधनों को मज़बूत करता है, जो भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने को मनाने और सुदृढ़ करने में इसकी भूमिका को दर्शाता है।